भारत में नसबंदी अभियान क्यों और कैसे चलाया था?
वर्तमान में भारत की जनसँख्या 135 करोड़ के आस-पास है. लेकिन वर्ष 1971 में भारत की जनसँख्या 54.81 करोड़ थी जो कि पिछले दशक की तुलना में 24.80% अधिक थी. वर्ष 1971-1981 के बीच भी भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 24.66% रही थी. जनसँख्या वृद्धि का यह क्रम आगे भी जारी रहा और भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 1961 के दशक से 2001 तक हर दशक में औसतन 22% की दर से बढ़ी है.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि जनसंख्या वृद्धि दर को रोकने के प्रयास भी पूर्व इंदिरा गाँधी सरकार ने किये थे? इसके लिए उसने एक देशव्यापी कार्यक्रम भी चलाया था. आइये जानते हैं कि यह कार्यक्रम क्यों, कैसे और किसके मार्गदर्शन में शुरू किया गया था.
'सबको सूचना जारी कर दीजिए कि अगर महीने के लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ वेतन रुक जाएगा बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी होगा. सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मुझे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें'
दरअसल यह टेलीग्राफ से भेजा गया संजय गाँधी का एक संदेश था. इसे आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने अपने जूनियर अधिकारियों को भेजा था.
_*भारत में जनसंख्या वृद्धि की रोकथाम के लिए नसबंदी कार्यक्रम शुरू करने के लिए निम्न कारण जिम्मेदार माने जाते हैं;👇🏻*_
1. इंटरनेशनल प्रेशर
2. परिवार नियोजन का फेल होना
3. संजय गांधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा
4. आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश शक्ति
आइये इनके बारे में विस्तार से जानते हैं;
_*1. इंटरनेशनल प्रेशर👇🏻*_
25 जून 1975 को पूरे भारत में इंदिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल घोषित कर दिया था, सभी बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंदी जेल में थे इस कारण अब सरकार के पास निरंकुश शक्ति आ गयी थी. सरकार के किसी फैसले का विरोध करने के लिए कोई बाहर नहीं था.
ऐसे माहौल में पश्चिमी देशों, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और एड इंडिया कसॉर्टियम जैसे संस्थान भी भारत की जनसंख्या वृद्धि से चिंतिति हो रहे थे. ये देश और संस्थाएं संदेश दे रहे थे कि जनसंख्या वृद्धि के मुद्दे पर भारत 1947 से काफी कीमती समय बर्बाद कर चुका है और इसलिए उसे बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने के लिए युद्ध स्तर पर ठोस कार्यक्रम शुरू करना चाहिए.
इन देशों और संस्थाओं का मानना था कि हरित क्रांति से अनाज का उत्पादन कितना भी बढ़ जाए, ‘सुरसा’ की तरह मुंह फैलाती आबादी के लिए वह नाकाफी ही होगा. उनका यह भी मानना था कि भारत को अनाज के रूप में मदद भेजना समंदर में रेत फेंकने जैसा है जिसका कोई फायदा नहीं.
आपातकाल शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों का गुट और भी जोर-शोर से नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की वकालत करने लगा. इंदिरा गांधी ने यह बात मान ली. हालाँकि 25 जून 1975 से पहले भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर इस बात का दबाव बढ़ने लगा था कि भारत नसबंदी कार्यक्रम को लेकर तेजी दिखाए.
_*2. परिवार नियोजन का फेल होना👇🏻*_
अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते भारत में काफी समय से जनसंख्या नियंत्रण की कई कवायदें चल भी रही थीं. गर्भनिरोधक गोलियों और मुफ्त में गर्भनिरोधक कंडोम वितरण जैसे सहित कई तरीके अपनाए जा रहे थे, लेकिन इनसे कोई खास सफलता नहीं मिलती दिख रही थी. ‘हम दो हमारे दो’ का नारा भी सरकार ने लोगों इसलिए दिया था ताकि सामाजिक जागरूकता फैले और लोग ज्यादा परिवार ना बढ़ाएं.
_*3. संजय गांधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा👇🏻*_
ऐसा माना जाता है कि इंदिरा ने आपातकाल संजय के कहने पर ही लागू किया था. जून 25, 1975 को आपातकाल लगने के बाद ही राजनीति में आए संजय गांधी के बारे में यह साफ हो गया था कि वे ही आगे गांधी-नेहरू परिवार की विरासत संभालेंगे. संजय भी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे. हालाँकि उस समय वृक्षारोपण, दहेज उन्मूलन और शिक्षा जैसे मुद्दों पर भी जोर था.
_*4. आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश शक्ति👇🏻*_
जनसंख्या नियंत्रण का प्रोजेक्ट जैसे संजय के लिए ही शुरू किया गया था. इंदिरा ने इस प्रोजेक्ट को लागू करने की जिम्मेदारी संजय को सौंपी थी. आपातकाल के दौर में संजय के पास असीमित शक्ति थी. उन्होंने मन बना लिया कि वे इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक लागू करके अपने आप को एक सफल नेता के रूप में स्थापित कर लेंगे. लेकिन संजय ने इस अच्छे प्रोजेक्ट के लिए जनभागिता की जगह दादागीरी से काम लिया और उनका यह कदम पूरी कांग्रेस के ऊपर भारी पड़ गया.
_*आइये जानते हैं कि नसबंदी कार्यक्रम को कैसे लागू किया गया था?👇🏻*_
ऐसा लगता है कि संजय को भारत में नसबंदी कार्यक्रम की प्रेरणा हिटलर द्वारा जर्मनी में 1933 में चलाये गये नसबंदी कार्यक्रम से मिली थी. दरअसल हिटलर ने भी जर्मनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था. इसके लिए एक कानून बनाया गया था जिसके तहत किसी भी आनुवंशिक बीमारी से पीड़ित व्यक्ति की नसबंदी कर दी जाती थी ताकि आनुवंशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में ना जाएँ. इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि जर्मनी इंसान की सबसे बेहतर नस्ल वाला देश बन जाये. बताते हैं कि इस अभियान में करीब चार लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी.
संजय गांधी ने फैसला किया कि नसबंदी का काम देश की राजधानी दिल्ली से शुरू होना चाहिए और वह भी पुरानी दिल्ली से जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है. मुस्लिम समुदाय के बीच तो यह भी धारणा थी कि यह उसकी आबादी घटाने की साजिश है. हालाँकि यह बात गलत है क्योंकि इसका प्रभाव सभी जाति और धर्म के लोगों पर पड़ा था.
अधिकारियों को नसबंदी करने के टारगेट दिए गये थे इसलिए ये लोग गावों को घेर लेते थे और जबरन नसबंदी कर देते थे. यहाँ तक कि उन लोगों की भी नसबंदी कर दी गयी थी जो कि अविवाहित थे या जिनकी शादी हो गयी थी लेकिन कोई संतान नहीं थी. लोगों को नसबंदी कराने के लिए लालच भी दिया जाता था और कभी कभी तो जबरन बसों से उतारकर और सिनेमाघरों से पकडकर लोगों की नसबंदी कर दी जाती थी.
संजय गाँधी हिटलर से 15 गुना ज्यादा आगे निकल गये और उन्होंने भारत में 15 वर्ष से लेकर 70 साल तक के लगभग 60 लाख लोगों की नसबंदी कर दी थी. बताया जाता है कि इस दौरान गलत ऑपरेशनों से करीब दो हजार लोगों की मौत भी हुई थी.
इस कार्यक्रम को अंत देश में 21 महीनों की इमरजेंसी के बाद हुआ और 1977 में देश में फिर से आम चुनाव कराये गए. जनता में इमरजेंसी के दौरान किये गए किसी भी अत्याचार से ज्यादा आक्रोश नसबंदी के प्रति था. कांग्रेस केवल 154 सीटों पर सिमट गयी, इंदिरा गाँधी रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं और देश में जनता पार्टी की सरकार बनी.
यह एक अभियान देश का सबसे अच्छा अभियान साबित हो सकता था अगर संजय गांधी लोगों की सलाह ले लेते. अगर लोगों को जागरुक किया जाता, उनको छोटे परिवार के फायदों के बारे में बताया जाता. तो ऐसा हो सकता था कि लोग राजी-खुशी इस अभियान में हिस्सा लेते और यह कार्यक्रम हमारे देश का सबसे सफल अभियान हो सकता था.
सारांश के तौर पर यह कहा जा सकता है कि देश में जनसँख्या वृद्धि को रोकने के लिए संजय गाँधी ने बहुत अच्छा फैसला लिया था लेकिन उन्होंने फैसले को गलत तरीके से अंजाम दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि देश में जनसँख्या वृद्धि पर लगाम लगने का सुन्दर मौका जाता रहा और इसका परिणाम देश आज तक भुगत रहा है.
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